बच्चों की शिक्षा से खिलवाड़
लोकतंत्र समझने का असली औजार शिक्षा,कमजोर !
लोकतंत्र का असली पर्व आते ही सियासी तवा गर्म होने लगा जिस पर सियासी लोग रोटी सेकने का अपना -अपना हुनर और तजुर्बा दिखाएंगे। सत्ता में आते ही सत्ता तक पहुंचाने वालो की रोटीयों को छीन कर अपना पेट भरने में लग जाते है। सत्ताधारी खाने में इतने मगरूर हो जाते है कि उन गरीब लोगों के बच्चों की पेट भरने वाली पहली फसल शिक्षा को ही बर्बाद करने पर उतारू हो जाते है । लोकतंत्र को पोषित करने वाला मुख्य औजार शिक्षा उनसे छीन लिया जाता है । यह वही औजार है जो लोकतंत्र को समझने और उसे सौहार्दय रूप प्रदान करने में सहायक होता है। भारत जैसे देश में सामाजिक सौहर्दता तभी संभव है जब लोग एक -दूसरे को समझते हुए एक- दूसरे की संस्कृति को सम्मान दें यह बिना शिक्षा ज्ञान के संभव नहीं है। स्कूलों की स्थापना के पीछे गहरी समझ यह है कि यहां बच्चें पढ़ना-लिखना सीखें उनमें अपेक्षित संवैधानिक मूल्य विकसित किए जाए। खेल खेल में सीखने वाले बच्चों की शिक्षा से खिलवाड़ कैसे और क्यों की जा रही है इनसे पूछना जरूरी है?।
शिक्षा के स्तर पर अनेकों रिपोर्ट हवा की तरह आती है और चली जाती है । इसका अंदाजा कोई नहीं लगाना चाहता की इस हवा का दीपक रूपी बच्चे पर क्या प्रभाव पड़ता है ।? बारह असर रिपोर्टें क्यों बेअसर होती चली गई। सरकार समीक्षा कर जड़ तक पहुंच कर उसका समाधान क्यों जरूरी नहीं समझती ?।
बदलते वक़्त के साथ शिक्षा बदहाल होती चली जा रही है।
सरकारों द्वारा बेहतर शिक्षा के बड़े -बड़े वादे किए जाते है । शिक्षा सुधार के नाम पर भेरी रूपी ढोल पीटे जाते हैं। जबकि शैक्षिक -सामाजिक पहलुओं को देखें तो तस्वीर कुछ उलट दिखाई देती है। भविष्य में आने वाले भारत को एक नई दिशा देने वाले नन्हें बच्चों को दी जा रही शिक्षा व्यवस्था कि जमीनी हकीकत कुछ और ही है जिसे जानकर आपका चौकना स्वभाविक है। 3 वर्ष से 16 वर्ष के 5 लाख 46 हजार 5 सौ 27 बच्चों पर किए गए सर्वे पर आधारित 13 वी एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) बीमारू शिक्षा व्यवस्था को दर्शाती है । आजादी के 70 साल बाद भी 55.5 प्रतिशत कक्षा 5 के छात्र कक्षा 2 की बुक्स नहीं पढ़ पाते हैं। हिंदी बेल्ट वाले राज्यों में हिंदी कि दुर्दशा आपातकालीन स्थिति में पहुंच रही है।यह आंकड़ा शिक्षा की बदहाल स्थिति को दिखाता है , सरकार बनाने और चलाने का रास्ता जिस उत्तर भारत से जाता है उसी की शिक्षा व्यवस्था बेहद ख़राब और निराशाजनक है। बीमारू राज्य से विकसित राज्य में बदले मध्य प्रदेश की हालत और भी खस्ता है । 2008 में मध्य प्रदेश के 5 वी कक्षा कक्षा में पढ़ने वाले 13.2 प्रतिशत बच्चे कक्षा 2 की बुक्स नहीं पढ़ पाते थे । आज यही आंकड़ा 65.6 प्रतिशत पहुंच गया है । 65.6 प्रतिशत कक्षा 5 के छात्र कक्षा दो की पुस्तक नहीं पढ़ पाते है । 70 साल के गणतंत्र भारत कि कहानी क्या बयान कर रही हैं इस पर सभी नागरिकों को गहनतापूर्वक विचार करना चाहिए।
आर टी ई से पढ़ने की क्षमता में गिरावट आई। आरटीआई का उद्देश्य गुणवत्तापूर्ण शिक्षा स्थापित करना है। विडंबना है कि गुणवत्तपूर्ण शिक्षा आज भी सपना बना हुआ है। इसे लेकर कई राज्यों में हलचल तो है मगर यह मूल्यांकन की कैद से स्वतंत्र नहीं है।
8 वी कक्षा में अध्ययनरत विद्यर्थियों द्वारा कक्षा 2 की बुक्स पढ़ने का प्रतिशत 2008 में 83.6 था वो 2018 में घटकर 69.0 हो गया ।
जिस देश की खोज से गणित की शुरुआत होती हैं। जिसने पूरी दुनिया को शून्य दिया । एक से एक गणितज्ञ यहां पैदा हुए । गणित सीखने में यहां के लोग समूचे विश्व में सबसे टॉप पर जाने जाते हैं । आज इसमें बच्चें घटिया क्यों होते जा रहे है?। लाखों बच्चों को कक्षा में गुरु उपलब्ध नहीं है फिर भी हम विश्व गुरु बनने की कल्पना कर रहे है। विकसित भारत की सबसे ऊंची ईमारत की नींव कमज़ोर पड़ती जा रही हैं । असर की रिपोर्ट के अनुसार 5 वी कक्षा में पढ़ने वाले 77.3 प्रतिशत विद्यार्थी भाग नहीं कर पाते । मध्यप्रदेश में यह आंकड़ा आौर बढ़ जाता हैं । मध्यप्रदेश में पढ़ने वाले कक्षा 5 के 83.5 प्रतिशत छात्र भाग नहीं कर पाते । कुपोषित होता गणित दिख रहा है बस चस्मे से ढ़की आंखो से चस्मा उतारने की जरूरत है। आजादी के इतने साल बीत जाने के बावजूद 29 प्रतिशत स्कूलों में पानी पीने की सुविधा उपलब्ध नहीं करा पाए ।बाल शोषण रोकने के लिए सरकार अनेक योजनाएं चला रही हैं।जबकि छात्रों के लिए बुनियादी सुविधाओं में से एक टॉयलेट सुविधा 43.5 प्रतिशत स्कूलों में नहीं हैं।तकनीकी दुनिया के युग में 96.2 प्रतिशत स्कूलों में कंप्यूटरों का अभाव ।
ये आंकड़े कह रहे है कि आजादी के 70 साल बाद भी बच्चों की कक्षाओं में सीखने के स्तर पर हम अन्य विकसित देशों से काफी पीछे हैं। बच्चा क्लास में कैसे बेहतर और क्या सीखे इसका लक्ष्य निर्धारण सरकार आज भी नहीं करती दिख रही । आज देश में प्रारंभिक कक्षाओं में सीखना- सिखाना बेहतर नहीं हो पा रहा, देश इस समस्या से लगातार जूझ रहा है, जिससे स्कूली शिक्षा व्यवस्था बुरी तरह चरमरा गई है। मॉनिटरिंग के नाम पर सरकार पिटारे पीटती है। सात साल पूर्व सरकार ने स्कूलों की मॉनिटरिंग के लिए एरिया एजुकेशन ऑफिसर (एईओ) पदों के लिए राज्य स्तरीय परीक्षा करवाई ।इतने लंबे समय अंतराल के बीत जाने के बाद भी स्कूलों की नियमित मॉनिटरिंग होना कितनी आवश्यक है । असर रिपोर्ट का बेअसर परिणामी आंकड़ा बयान कर रहा है । उस समय यदि मॉनिटरिंग की शुरुआत हो गई होती तो आज मध्यप्रदेश में शिक्षा का स्तर सुधरा होता। शिक्षा जगत नई योजनाएं व रणनीतियां तो बनाता है जो समस्या के समाधान की नहीं होती । सरकार मूल समस्या ढूंढकर उसका समाधान करें।
लेखक
आंनद जोनवार
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