एक अनोखी दुनिया पातालकोट

फीका पड़ता पाताल का रंग

बोर्ड ऑफिस भोपाल से अपनी पूरी टीम के साथ निकल पड़े देश के दिल की गहराइयों में बसे पातालकोट के बारे में फैली भ्रामक बातो की सत्यता की पुष्टि करने  की पड़ताल और  विकास की नब्ज टटोलने। शहर से ही  लगने लगा कि विकास अपने पैर पसार रहा है। मंजिल तक पहुंचते-पहुंचते ना जाने कितनी मंजिलें धराशाई होते हुए दिखी, ये सीमेंट कंक्रीट की वो मंजिलें थी , जिन्हें पुन: बना सकते हैं। घुमावदार -लहरदार ,ऊंची -नीची सड़कों से होशंगाबाद ,बाबई में बंद्री की चाय की  गर्म- गर्म चुस्कियां पीकर, पिपरिया ,तामिया होते पातालकोट के गांव गैलडूब्बा ,डर भरी रात ,संदेह को मन में पाले हुए , सुनी हुई भ्रामक बातों को ध्यान में रखे हुए रात 10:30 बजे सुख ,सुविधा, संपन्न छाती को चीरती  हुई सड़कों से वहां पहुंचे तो छाती सुकून से भरी और मन प्रकृति की खुशबू से प्रफुल्लित हो उठा ।सीधे-साधे सहज सरल स्वभाव वाले प्रकृति के पुत्रों से परिचय हुआ तो परचम लहरा रहा विकास  मन में समा गया। झाड़ के छोटे-छोटे बेर रूपी  टमाटर की चटनी, बैगन का भरता, मक्का ,गेहूं की रोटी ,दाल- चावल सामूहिक रूप से खाए हुए खाने ने  सतपुड़ा की अतल गहराइयों तक मन को संत्रप्त कर दिया। वो काली चाय भी पीछे नहीं रही, उसकी  गर्म- गर्म चुस्कियां शांत तरीके से शरद हवाओं के बीच कलेजे को गर्मी प्रदान कर रही थी ।जिज्ञासाभरी डरावनी कहावतों के बीच रात कब निकल गई मालूम ही नहीं पड़ा। सुबह कूट-कूट कर कड़ी मेहनत से तैयार होने वाली कुटकी की खीर युक्त भोजन से  भरपूर पेट भरने के बाद निकल पड़े पातालकोट के मुख्य पॉइंट व्यू  , यहां से देखने पर  पूरा पातालकोट आंखो में कैद हो जाता है। अतल गहराइयों में बने घर ,निवासी, पशु छोटे-छोटे नजर आते हैं । यहां से देख कर जाने वाले सूक्ष्मदर्शी  सभ्य लोगों ने यहां के निवासियों को  भ्रमपूर्वक बौना बना दिया ।  यहां सरकार के आशीर्वाद से कौढी के दाम बेची गई जमीन पर फल- फूल रहीं  एक निजी कंपनी के कर्मचारी निवासरत जनजाति के लोगों को आने -जाने , सभा करने , औषधि बेचने से रोकते हैं। स्थानीय व्यक्ति ने बताया कि विकास तो हुआ है ।सड़क गांव तक पहुंच गई, घर शौचालय , स्कूल बन गए ।इस विकास की हमारे जीवन में क्या उपयोगिता है जब हमारा मुख्य व्यवसाय ही  छीन रहा हैं।औषधि बेचने नहीं देते । हमारी मुख्य संस्कृति ही हमसे दूर हो रही है। मजदूरी का पैसा समय पर नहीं मिलता ।सरकारी दफ्तरों कर्मचारियों के चक्कर लगाते -लगाते थक जाते हैं जिससे जंगल जाना भी नहीं हो पाता। नगद पैसे मिलने से कुछ साथी शहरों में  मजदूरी करने चले जाते हैं। जंगलों में कम जाना, अनौपचारिक शिक्षा पाने से बच्चों  में पीढ़ी दर पीढ़ी औषधियों की जानकारी  कम होती जा रही है। चिमटीपुर के स्थानीय स्नातक अध्यनरत 25 वर्षीय  छात्र ने नौकरी  न मिलने की पीड़ा आंसुओं के साथ बयान कि, उसके मेहनती कष्टप्रिय आंसू विकास की धारा में यू  ही न बह जाए ,इस बात को लेकर वह  चिंतित था। परिस्थितियों से जूझते हुए इसके कदमों ने इतनी दूरी नापी जितनी सरकार की सड़क भी नाप न सकी । अब यह चिंतित है क्योंकि इसे  जंगल का ज्ञान नहीं है ।यदि  नौकरी नहीं मिली तो यह आने वाली अपनी पीढ़ी को क्या बताएगा । यह लोग सगाई में पहले अपनी मेहनत से उगाए फल ले जाया करते थे आज के विकास  काल में  बाजार से खरीद कर लाए फल ले जाया करते हैं ।देखने में यहां के  छोटे-छोटे टमाटर बाजार के 4 गुने टमाटर के बराबर स्वाद व  पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं। मूल्यवान औषधिय पोषक युक्त अधिक ऊर्जा प्रदान करने वाला भोजन आज इनके चौका से  बाहर बाजार की ओर आ रहा है। ये बाजार के सस्ते, चटपटे, चमकते, पैकेट में बन्द भोजन का उपयोग करने से  अपने शरीर को कमजोर कर रहे  है ।
व्यवस्थित वातानुकूलित घर जिनमें आने  -जाने को आमने सामने दो दरवाजे थे ।घर की संरचना अपने आप में अनोखी व विकसित है। गांव की अंदरूनी हालात  कुछ और ही बयां कर रहीं  हैं । कुछ प्रगतिशील चमकते परिवार जिनके पास अपने निजी चार और दो पहिया वाहन है। अपने  आर्थिक हालात बेहतर होने का कारण  अाज के इस विकास को बता रहे हैं। बाकी के हालत खराब होने के सवाल पर मौन साध लेते  हैं। क्या पता उन्हें की इन  सड़कों से उनके जंगल में धीरे-धीरे क्या पहुंच रहा है? सीधे साधे लोग इस बात का अंदाजा नहीं लगा सकते कि विकास की तपती किरण  1 दिन इनके  जंगल को नष्ट कर देगी। जिस पर इनका पूरा जीवन टिका हुआ है सड़क पर  चलते हुए वाहनों  से निकलने वाला धुआं, बाहरी दुनिया के सभ्य लोगों द्वारा अपने साथ प्लास्टिक कचरा, पॉलिथीन, पैकेट्स सामग्री ले जाने व छोड़ आने  से भविष्य में पूरे पातालकोट में गंभीर समस्या खड़ी हो सकती है । और  प्रकृति के प्राकृतिक रंगों से सजोये हुए गड्ढे प्लास्टिक से भर जाएंगे । इस पर सरकार और तकनीकी  सभ्य लोगों को  गंभीरतापूर्वक सोचकर विचार करना चाहिए  ।  आज विकास के पैर उनकी  देहरी खूद रहा है ,हर घर में शौचालय मौजूद है ,साफ, स्वस्थ ,सोच वाले लोग पानी के अभाव में इसका उपयोग कैसे करें, उन्हें सोचने को मजबूर कर देता है। बात यहां कहां रुकती, रुक जाती तो अच्छा होता जब ये  शौच करने बाहर खुले में जाते हैं, तब इन्हें 500 रुपए अर्थदंड के रूप में समिति को महीनेवार  चुकाने पड़ते है।
79 किलोमीटर के क्षेत्र में फैले पातालकोट में तीन ग्राम पंचायतों में 12 गांव आते है । जिनमें भारिया व गौंड जनजाति रहतीं है। भारिया यहां अति पिछड़ी जनजाति है । इनमें से कारेआम तो एक घर का  गांव है ।  अपने अनुभव और स्वप्रेरणा से  सीखने वाले ये लोग, जीवन के हर मोड़ पर मंजिल तक पहुंचने के लिए हर कदम पर ,हर एक कदम से एक नया रास्ता बनाते हुए मंजिल तक पहुंचते थे। कुछ निजी कंपनियों की नजर इस इलाके पर पड़ रहीं है तभी तो सत्ताधारी इनके पीने के पानी की व्यवस्था नहीं कर रहें।   गड्ढे के अंदर  गड्ढा खोदने में पैसा खर्च रहें है। ऐसा 11 गांव से आए लोगों का कहना था कि सरकार के द्वारा हैंडपंप खुदवाने के फेल होने का कारण अधिकारियों की मनमानी , वे अपने हिसाब से खुदवाते है ।यदि वे  हमारे बताए अनुसार खुदवाए तो  फेल होने की संभावना काफी कम होगी। यात्रा के दौरान सड़क पर पानी के बर्तन घघरा ,टंकी, भगोना , तमेडी लिए  इकट्ठा हुआ जनसैलाब  उस टैंक  का इंतजार कर रहा था ,जिससे अपनी प्यास बुझा सके। प्यास बुझाने वाला पानी भी 100 रुपए प्रति घर आता है । ऐसा प्यासे  बता रहे  थे। वातावरण व प्राकृतिक रंगों  को संतुलित सुरक्षित रखने वाले इन लोगों का रंग पानी के अभाव में  फीका  पड़ रहा है ।
हांफते, कांपते हुए पैर, मन में  राजा खोह घूमने की उमंगता पहांडो के बीच पहांडो की तरह मजबूत होती चली आ रही थी । शांत , शीत हवाओं, ठंडी बौछारों के साथ जब यहां पहुंचे तो मन आनंदित हो उठा । सिकुड़ते हुए झरने के ठंडे पानी से लथपथ पसीना और थकावट कब दूर हो गई मालूम ही नहीं चला।
चे -चे, पो -पो  की दुनियां से दूर एंकात में  भरपूर सुकून लिया ।
3300 फुट नीचे ढ़लानी पहांडो से एक दूसरे का हौंसला बढ़ाते ,साथ देते हुए ऊपर आए ।

विकास के साथ-साथ जिम्मेदारों को ध्यान रखना चाहिए कि
स्थानीय व्यवहारिक परम्परागत भाषा शिक्षा पर अधिक फोकस किया जाए, जिससे ये  अपनी संस्कृति को ना भूले , मध्यान्ह भोजन में पारंपरिक खाद्य सामग्री को सम्मिलित  करने का प्रयास किया जाए । जल, जंगल और जमीन को उपयोग हेतु  सीमित ना किया जाए।  पर्यटक प्लास्टिक को वहां ना छोड़े । सरकार इनके लिए हैबिटेट राईट का कानून  जल्द से जल्द बनाए।
पूर्व में इनका नमक के लिए बाहर अाना शुरू हुआ आज ये मजदूरी , शिक्षा ,बाहरी दुनिया की  सामग्री व इसके प्रति आकर्षण , पीने युक्त पानी की कमी, धीरे धीरे  पलायन होना स्वाभाविक रूप से  सरकार की मंशा पर प्रश्नचिह्न लगा रहीं है। आकाशीय विकास ने सड़क किनारे हजारों पेड़ो की जड़े देखने के लिए खुली छोड़ दी है जो कभी भी हादसे की वजह बन सकती है ।
पाताल की इन्हीं गहरी यादों के साथ झुर्रिदार राजा खोह गुफा से  राजा भोज की झीलों की  नगरी अाना हुआ।

लेखक
आनंद जोनवार

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