खा रहा है खाद

धूप और धूब 
समय के साथ बदलती  जलवायु और विकास की बढ़ती रफ्तार में एक की चुभन  बढ़ रही है तो दूसरी  अपने पैर सिकुड़ रही है । इन दोनों के बीच पिस रहा है थका इंसान।बीते काल के कवि लेखकों की लेखनी ,कविता,कहानियां पढ़े तो अनेक जगह धूप की साया और धूब की खूबियां समस्त साहित्यिक भू पर नजर आती है। इससे मालूम चलता है कि ये मानव के अनुकूल और अनुरूप थी ।मानव की बढ़ती जरूरत और लालची स्वभाव के कदम ने धूब को रौंद कर धूप को बढ़ा दिया ।अरब जनसंख्या  का पेट भरने  के चक्कर में प्रयुक्त खाद ने धूब को खाकर चबा डाला।ग्रामीणों की बात  से पता चलता है कि कभी धूब घुटनों तक हुआ करती थी आज धरती की गोद में समा गई है । चारा का काम करती ये धूब  पशुयों का पेट पालती।प्रसन्न रहते पशु भी  बरसात के दिनों में भूख मिटाते धूब से, पानी में करते अठखेलिया सुनहरी इंद्रधनुषी सी धूप में हरियाली वसंत मौसम का खूब आनंद उठाती।  धरती पर बिछी ये हरी चादर जिस पर पड़ती सुनहरी सूरज की धीमी  रोशनी जो कभी चुभती नहीं । धूब धीरे धीरे पैर सिकुड़ कर आंखों के सामने से  गायब हो रही है । धूब पर पड़ती मोती जैसी ओंस की बूंद  मानो बंद हो गई।मिट्टी को बांधे रखती ये धूब मिट्टी में समा गई। खाद इसका कारण है बाढ़ इसकी समस्या । चिलचिलाती चुभती धूप में गर्मी का  चढ़ा पारा आसमान  कोसने को मजबूर करता है ।बढ़ते सीमेंट कंक्रीट के विकास में नियमित  अनियंत्रित पेड़ पौधों का काटना,ग्लोबल वार्मिग का बढ़ना  सूरज की तपस और असहनीय धूप की वजह है ।आज सभी इंसान खाद खा रहे है  और यही खाद हम सब को खा रहा है ।पंजाब इसका जीता जागता उदाहरण है।

लेखक
आनंद जोनवार

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