मन और दर्द की चोट

कर्तव्य ने चोट को पछाड़ा

बचपन में छोटी सी चोट से बच्चें डर जाते है ।बिना दर्द की चोट के आगे भी डरे नांदान परिंदे भयभीत होकर अपने कर्तव्य को  करने से कतराते है ,या यूं कहे बहाने बनाने लग जाते है ।बास्तव में उनके मन के घर को टटोलने पर कहीं भी कर्तव्य की मूर्ति नजर नहीं आती । उम्र के लिहाज़ से कर्तव्य पूजा करने से अनजान रहता है । दिक्कत तब होती है जब वह इसे पाल के रखता है और भविष्य में ऐसी ही चोट का दर्द उसे कर्तव्य करने को रोकता है  ।बचपन  में  अपने प्रत्यक्ष क्षणिक  लाभ के उद्देश्य से बनाए गए   सिद्धांत  को  जब उम्र के पायदान पर फॉलो करता है तब बच्चे से बने व्यक्ति को हो सकता है कुछ फायदा हो ।विशेष परिस्थितियों को अगर छोड़ दिया जाए  तो यह कुछ फायदा  के चक्कर में कहीं ना कहीं किसी ना  किसी को नुकसान पहुँचा रहा होता है । नुकसान वहां अधिक  बढ़ जाता है जब व्यक्ति कर्तव्य के पद पर बैठा होता है। नुकसान का पुलिंदा बन जाता है जब  शिक्षक अपने नैतिक कर्तव्य शैक्षणिक गतिविधि से भागता है।एक शिक्षक का जब पढ़ाने से जी कतराता है तो वह ना जाने कितने बच्चों को उनके उज्ज्वल भविष्य से दूर कर रहा होता है ।धन्यवाद देकर शुक्रगुजार हूं  गले में  चोट के पट्टे से जकड़े उस  कर्तव्यनिष्ठ अध्यापक का जिसकी एक अमूल्यवान लाइन मेरी दर्दनाक चोट और समय से अनेक कीमती  आपका समय  है ।  ऐसे जुझारी   कर्तव्यनिष्ठ संघर्ष का रास्ता दिखाने  के साथ साथ  रास्ता भी बनाते है ।  मूर्ति के रूप में उसी पत्थर कि पूजा होती  है जो अपने पत्थर रूपी मन को  दृढ़ कर  हथौडे  टांकीयो की दर्द भरी चोट झेल कर सह जाता   है।  उस फलदार पेड़ के आगे ढेलों को कोई कीमत  नहीं है  जिनके पड़ने पर वह आपकी झोली फलों से भर दे । ढेलों की चोट सहने के उपरांत भी फलों से झोली भर देना , झकजोर कर सोचने को मजबूर कर देता है  उस मन को जो एक चोट से परेशान हो जाता है  अनेक जी चुराने वाले  अपने समय ,सेल्फ काम को तर्क देकर कीमती  व्याख्या करते है ,उनका मूल्यवान  समय और काम चाहे जितना कीमती हो उसकी कीमत  आपके कर्तव्य  उत्तरदायित्त्व की चिंगारी पर आश्रितों के अमूल्य  समय से अधिक नहीं हो सकती ।

लेखक
आनंद जोनवार

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