झुका सहमा डरा घूंघा डॉक्टर सुदामा :सैफई

प्रेम और कर्म की भाषा समझाने के लिए  भगवान ,कृष्ण के रूप में अवतरित हुए ।  जिसे जन्माष्टमी के तौर पर बनाते है ।जब इसमें रोहिणी नक्षत्र लग जाता है तब इसी को कृष्ण जयंती कहा जाता है । जो समाज के उध्दार और कल्याण के लिए हमेशा मार्गदर्शक की भूमिका में रहे । उनके द्वारा दिये गए उपदेश  गीता में  वर्णित है जो  आज भी संसार को मार्ग प्रदान कर रहे है ।  प्रेम और सम्मान की भाषा इससे समझ सकते है जब उनके बचपन का दोस्त डरा सहमा किले में पहुँचा तो सुदामा को इतना सम्मान दिया जिसकी उसने  कल्पना नहीं कि।                     कलयुग में डॉक्टर  के रूप में आया यह भगवान सुदामा  ।मेडिकल प्रवेश परीक्षा (नीट)  पास कर  डॉक्टर बनने आए। ये  प्रथम वर्षीय छात्र  जब कॉलेज में प्रवेश हुए तो इनके आका बने बैठे सीनियरों ने परम्परा ,संस्कार, सहायता और अनुशासन के लिए फरमान जारी कर दिया ।डरने सहमने कि जो परम्परा इन्होंने अपने परिवार में नहीं सीखी उसे अब  18 साल  की उम्र उपरांत  सीखाया जा रहा है ।परम्परा में सबसे पहले मुंडन की क्रिया तत्पश्चात श्वेत पत्र की तरह सफेद ड्रेस में कदमताल में कॉलेज हॉस्टल में  आना जाना। बीच मार्ग में कोई  सीनियर मिल जाये तो सिर झुकाकर प्रणाम करना फिर चाए सीनियर का रहने वाला हॉस्टल हो।आंख उठाने की तो इन्हें हमेशा मना रहती है । थर्ड बटन पर रहने वाली ये आंख 90 डिग्री के एंगल से ऊपर नहीं जाती । एक कतार में कदमताल मिलाकर  चलने वाले ये  नन्हें भगवानों में से कइयों  तो सुसाइड कर लेते है।कई बीच में डिग्री छोड़ देते है और इस स्वाभिमान भरी परंपरा को जो जी लेता है वह कुलपति और अधिष्ठाता बन जाता है । तभी तो कुलपति स्वीकार कर रहा है ।मेरे टाइम पर तो इससे भी ज्यादा रैंगिग हुआ करती थी ये तो कुछ भी नहीं है ।ऐसे जिम्मेदार  अधिकारियों से रैंगिग रोकने की उम्मीद  करना कहां तक सही है ।ये तो इन्हें नियुक्त करने वाला भी  जानता  होगा ।यहाँ सवाल यह उठता है इतनी तकड़ी प्रशासनिक व्यवस्था ,कड़ा कानून होने के बावजूद भी इन रैंगिग कर्तायों के हौसले कैसे बढ़ जाता है । पर्दे के पीछे कहीं इनके हौसले बढ़ाने में उस  एन्टी रैंगिग कमेटी का ही  हाथ तो नहीं होता ।आप सोच रहे होंगे नहीं, आपका सोचना वाजिब भी है  ।क्योंकि आपने कभी जाना नहीं  वरना सालों  से बनी, कॉलेज में डैली आने जाने वाली इस कमेटी के नाक के नीचे इतनी   बर्बरता  वाली परम्परा चल रही होती है और  इन्हें पता नहीं चलता । इन्हें मालूम  रहता है पर ये मूर्ती की तरह  खामोश बने रहना  पंसद करते है  क्योंकि ये ही करवा रहे होते है  क्योंकि इन्हें ना तो कानून का खौफ रहता है ना  डर  ।
सवाल यह उठता है कि स्वत्रंत भारत के मजबूत लोकतंत्र में पढ़े लिखे लोग अपनी आवाज क्यूं दबाये हुए । इनकी आवाज किसी के  आला अधिकारी के आदेश में दबाई जा रहीं है  ।या फिर   ऐसी दर्दनाक डरी सहमी घटनाएं कारण बताओ नोटिसों में झूलती रह जाएंगी। या सीनियर के साथ साथ  जिम्मेदार निगरानी  रखने वाले ऑफिसर के विरुध्द कड़ी कार्रवाई की जरूरत है ।।  और  इन  अधिकारियों की जगह सिविल  प्रशासनिक  अधिकारियों  की  नियुक्ति की जरूरत है ।।  समाज में  भगवान कहे जाने वाले डरे डॉक्टर की आवाज इसलिए बंद है क्योंकि अंग्रेजो की बनाई  शैक्षणिक   व्यवस्था आज भी है ।जिसमें इंटर्नल, इंटरव्यू, प्रैक्टिकल के अंक उन्हीं प्रोफेसरों के हाथों में होती है ।इसके अतिरिक्त छात्र की उपस्थिति कम दर्ज कर परीक्षा से  भी वंचित किया जा सकता है । कानून का डंडा भले ही कितना मजबूत हो लेकिन  पेन के स्याही की छाप जब तक भविष्य के कागज पर पड़ेगी तब तक ये आवाज गले से बाहर नहीं आ सकती ।करीब 150 मेडिकल छात्रों का गंजापन होकर योगी बन जाना कितना उचित और सार्थक है ।यह तो सुप्रीम कोर्ट को निर्धारित करना होगा। बात रैंगिग की तो ही मूल अधिकारों का भी हनन हो रहा है ।रैंगिग पर आधारित मूवी टेबल नं 21   देख सकते जिसमें कैसे एक  पढ़ने वाले छात्र की जिंदगी तबाह होती है। जरूर देखिए। और तय कीजिये पिटाई से सम्मान मिलेगा या प्रेम से ।

लेखक
आनंद जोनवार

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