अधिकार में खो रहे है शिक्षा और सम्मान
अधिकारों के साथ खो रहे है शिक्षा और सम्मान। आजाद भारत में पहले स्कूल नहीं थे स्कूलों की मांग थी । भूखे भारत ने परिस्थितयों से जूझते हुए विकास की राह पकड़ी । हरित क्रांति और वैश्वीकरण से रफ्तार पकड़ी और तेजी से दौड़ने लगा । इसके दौड़ने में एक कदम शिक्षा के निजीकरण का भी था।जो सरकार के संरक्षण में और व्यापारिक नहीं था ।उसका लालन पालन खुद संस्था थी ।तब यह सरकारी व्यवसाय ना होकर निजी और शिक्षा हितैषी था ।इस समय सरकारी स्कूल पर्याप्त नहीं थे ।तो निजी स्कूलों ने शिक्षा का स्तर और भारत की साक्षरता बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की ।ये वो दौर था जब साक्षरता के साथ साथ शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ रही थी । जैसे ही 21 वी सदी में हम आरटीइ RTE अधिकार के साथ निजी शिक्षा में कूदे शिक्षा का स्तर डगमगा गया। सवाल यह उठता है कि इस अधिकार की क्या जरूरत पड़ गई ।जबकि हमारे संविधान में 14 साल के बच्चों को निशुल्क शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार पहले से मौजूद है। RTE राइट टू एजुकेशन राज्य के वित्त को प्राइवेट स्कूलों को देकर सरकारी शिक्षा तंत्र को खत्म करने की एक दूरगामी साजिश योजना है ।इसे आप एक उदाहरण से समझ सकते है ।एक कॉलोनी में 200 गरीब बच्चे है ।एक सरकारी स्कूल है ।उसमें 5 अध्यापक पढ़ाते है ।RTE आने से उस कॉलोनी में 4 स्कूल खुल गए । 25 परसेंट के हिसाब से बच्चे नर्सरी, LKG UKG, फर्स्ट में साल दर साल एडमिशन लेते गए। कुछ सालों बाद हाल ये हुआ की उस कॉलोनी में सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों कि संख्या दस से भी कम रह गयी ।इस स्थिति से शिक्षकों की संख्या घट गई । गरीबों की शिक्षा से खिलवाड़ करने वाली चालाक सरकार ।ये आरोप लगाएगी शिक्षक पढ़ाते नहीं है।दवाब और कानून के डर से उन शिक्षकों को निलंबित किया जाएगा या सेवानिवृत्त करवाया जाएगा ।आप सोच रहे होंगे इससे तो सरकार का पैसा बचेगा ।जिसे वो विकास के अन्य कार्यो में खर्च करेंगी ।आपका सोचना लाजमी है । यदि इसे व्यापक स्तर पर देखा जाए और अनुमान लगाया जाए तो ।वो पैसा सरकार खर्च करने से बच जाएगी जो इन गरीब बच्चों पर खर्च किया जाता था जैसे मिड डे मील, पुस्तक वितरण, अध्यापकों का वेतनमान ।सोचना भी सही है यदि गरीब बच्चों को उन निजी स्कूलों में सही ढंग से पढ़ाया जाए तो।
ये शिक्षा का अधिकार कलंकित हो गया जब बच्चों से खेल शुल्क,लाइब्रेरी शुल्क,ड्रेस शुल्क,यातायात शुल्क,पुस्तक शुल्क और ना जाने कितने शुल्क वसूले जाने लगे ।इनमें से कोई भी शुल्क की भरपाई ना होने पर मजबूरी में बच्चे को बाहर फैंक दिया जाता है या वाहन से ऊतार दिया जाता है सुमसान रास्ते पर।तो कहीं उस मासूम की टीसी पर दाग लगा दिया जाता है खराब चरित्र का । उसे जलील किया जाता है बेइज्जती के साथ।इसके अलावा उनकी पढ़ाई पर भी ध्यान नहीं दिया जाता ।इसी कारण इस दशक में 50 प्रतिशत 5 वी के छात्र कक्षा 2 की पुस्तक नहीं पढ़ पाते । आठवीं के आधे से अधिक छात्र भाग नहीं कर पाते ।ये बदहाल स्थिति हिंदी बेल्ट में और भयावह हो जाती है । हिंदी के उन राज्यों में शिक्षा की स्थिति और दयनीय हो जाती है ।जहाँ से होकर सत्ता की कुर्सी तक पहुँचते है । ये वो प्राइवेट शिक्षा प्रणाली है जो पल रही है सरकार के दम पर क्योंकि आरटीइ से प्रवेशित छात्र की निर्धारित शुल्क सरकारी खजाने से भरी जाती है ।तभी तो 2009 के बाद गली मोहल्लों में निजी स्कूलों की बाढ़ आ गई ।क्योंकि सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले छात्र को प्राइवेट नाम का लॉलीपॉप थमा कर सरकारी स्कूलों पर खर्च करने वाली जनता की गाढ़ी कमाई निजी स्कूलों को दे दी ।जिससे अध्यापकों की कमी के साथ बेरोजगारी बढ़ गई और शिक्षा स्तर में भी गिरावट आ गई। इन हालातों में सीमेंट कंक्रीट के स्कूल तो है पर पढ़ने और पढ़ाने वाला कोई नहीं । गुरु की अहमियत थी ।गुरु से माड साहब फिर सर और टीचर ।बदलते दौर में जिंदगी जीने के गुर सिखाने वाला ये गुरु आज सरकार का कर्मचारी बन कर रह गया ।वो भी वैशाखी पर टिका हुआ । गैस फैकल्टी बने गुरुओं का विभाग सम्म्मनित नहीं करता ।स्थायी और अस्थायी टीचर्स में भेदभाव बढ़ाने की नई सम्मानित स्टेज है ।पर क्या करें वो पढ़ी लिखी नई बेरोजगार जवान पीढ़ी जो इस अपमानित स्टेज पर आकर भी सरकार के सम्मान की तारीफ करता है ।कुछ ना होने से अच्छा है कुछ है जिसके सहारे अपना असम्मानित जीवन यापन कर रहा है।।बदलती बदहाल शिक्षा प्रणाली में अधिकारों से शिक्षा शिक्षक विद्यार्थी तीनों का अपमान हो रहा है ।
लेखक
आनंद जोनवार
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