देशहित में सेवा और खरीद

आध्यात्मिकता की ऊंचाई को छूना है तो साधना अपने लिए नहीं दूसरों के लिए होना चाहिए।आपकी साधना तभी सार्थक है जब उससे दूसरों को लाभ मिलें। तभी सफल साधना मानी जायेगी।करुणा दया सैद्धांतिक   के साथ साथ व्यवहार में होना चाहिए ।पेटियों में रुपए डाल देना मूर्तियों पर चढ़ा  देना ही दान नहीं होता। दान अकेले रुपए का नहीं होता मानव उन्नति उसके विकास में  निस्वार्थ भाव से  किया गया सहयोग,  किया गया कार्य ,दिया गया समय भी दान है।  गरीब दीन दुखियों  के हित में लिया गया सही विचार भी दान कहलाता है।।  इसी सेवा भाव से श्रमदान संस्था काम कर रही है ।जो शराब और मांसाहार  छोड़ने की शर्त पर गांव के लोगों को रोजगार दे रही है। साथ में भारत की विकेंद्रीयकरित अर्थव्यवस्था पर फोकस करते हुए मजबूती प्रदान कर रही है। निस्वार्थ भाव से सेवा में लगी श्रमदान संस्था वैकल्पिक रोजगार दे रही है। स्वदेशी के साथ-साथ आधुनिकता का ख्याल भी रखी हुई है ।जो मॉडर्न के साथ साथ  नए नए इनोवेशन प्रैक्टिकल करके बेहतर ब्रांड मार्केट में लेकर आ रही है।  सेवा भाव से लगे सेवकों का कहना है कि श्रमदान  से बने ब्रांडेट कपड़े अनुकूलता कि दृष्टि से कंपनी का टैग मोनो लगे कपड़ो से श्रेष्ठ है और सस्ते भी। देशहित समाज हित श्रमिकों की उचित श्रमदर की जरूरतों को पूरा करते हुए श्रमदान हथकरघा कपड़े  बना रही है।बुनकरों का काम गांव के  गरीब  लोग करते है। पर्याप्त रोजगार मिलने से गांव के लोग भी खुश है। एक ओर बेरोजगारी के चलते चमकते दौर में रोजगार पाने के लिए गांव के गांव खाली हो गए हैं। भूखे पेट की खातिर बर्तन की बोरियों को सिर पर लादकर गांवों के हठ्ठे कठ्ठे नौजवान सीमेंट कंक्रीट और धुंए से भरे शहर के आंगन में कमाई के लिये आते है।यहाँ जो कमाई होती है वह अपर्याप्त होती है ।ख़र्च के बाद हाथ में आठ्ठना बचता है।प्रदूषित शहर में अपर्याप्त कमाई उसकी हालत और स्वास्थ्य दोनो बिगाड़ देती है। महंगाई और बेरोजगारी के दौर में माता पिता की सेवा करने वाला बेटा उनसे दूर होता चला जाता है। दो आने लेकर श्रमिक नौजवान जब घर पहुँचता है ।तो उनके खर्च के पैमाने पहले तय हो जाते है। इस बीच लगी नशे की लत स्वास्थ्य और जीवन दोनों को बिगाड़ देती है।ऐसे में इनका शहर आना परिवार के दुख का कारण भी बन जाता है ।भारत जैसा विकासशील  देश जिसकी 70% आबादी गांव में रहती है कि अर्थव्यवस्था पश्चिमी व्यवसायीकरण से बिगड़ी हैं।विकसित देशों की अर्थव्यवस्था का ढांचा शहरी है ।शहरी केंद्रीय अर्थव्यवस्था अपनाने के कारण भारत की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा जाती है ।और हमें विकसित देशों पर निर्भर रहना पड़ता है ।उनके निवेश से हम क्षणिक भर की  बेरोजगारी की भूख का पेट तो भर लेते है ।पर हम अपने  आपको आर्थिक रूप से कमजोर कर रहे होते है । हमारे देश का पैसा मुनाफे के रूप में विदेशो में जा रहा होता है। प्राचीन समय में भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का डंका पूरी दुनिया में बिगुल फूंक रहा होता था । वैश्वीकरण के दौर में भारत को शहरी अर्थव्यवस्था के साथ साथ गांव स्तर पर रोजगार के साधन उपलब्ध कराने होंगे । दस हज़ार रुपये प्रति महीनेभर के रोजगार से शहर में फर्क पड़े या ना पड़े लेकिन गांव स्तर पर जरूर फर्क पड़ता है। एक मजबूत स्थायी अर्थव्यवस्था जन्म के साथ पनप रही होती है ।गरीब लोगों के जीवन स्तर में सुधार भी हो होता है। श्रमदान निस्वार्थ भाव से यह काम कर रही है ।वह गरीब लोगों  को गांव स्तर पर हाथ से कपड़े बनवाकर दस से पंद्रह हजार रुपये हर महीने रोजगार दे रही है। साथ ही लोगों को नशे से छुटकारा भी दिलवा रही है। 3 साल पहले 9 लोगों से शुरू हुई संस्था में आज करीब 600 लोग कार्यरत है ।जातिगत भेदभाव से  दूर यह संस्था बिना सरकारी सहायता से संचालित है ।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसकी तारीफ कर चुके है ।हाथ से बने कपड़े इकोफ्रेंडली के साथ केमिकल फ्री है ।इनमें ना  बिजली ,ना ही पानी का उपयोग किया जाता है ना ही रसायन का। ये हथकरघा पूर्ण रूप से स्वदेशी है।इन कपड़ो की शारीरिक और वातावरणीय अनुकूलता ही विशेषता है ।ये अहिंसक सॉफ्ट और छिद्र युक्त है। वजन में हल्के और छिन्द्र गर्मी में ठंड और ठंड में गर्मी का एहसास दिलाते है। ये ठीक उसी प्रकार काम करते है जैसे मिट्टी के बने घर और कुएं का पानी । एक पावर लूम 14 लोगों का रोजगार छीन लेता है वही हथकरघा से बना कपड़ा रोजगार तो देता ही है ।स्वदेशी के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को भी मजबूत करता है । लोगों को गांव में  ही रोजगार उपलब्ध कराने के साथ  साथ स्वास्थ्य का भी ख्याल रखता है।
श्रमदान  मॉडर्न चमकते जमाने में मॉडर्न रंग विरंगी दुनिया का भी ख्याल रख रहा है।ताकि लोग स्वदेशी ताकत को पहचान सकें।और खरीद सके। यह देश की प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर है।
 हथकरघा एक कला है और इसे अनपढ़ भी सीख कर रोजगार पा सकते हैं। स्वदेशी कपड़े का वही महत्व है जो चूल्हे की रोटी का ।ये अपनी माटी की खुशबू समेटे हुए होता है।

लेखक व चिंतक
आनंद जोनवार

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