व्यक्तिगत स्वतंत्रता
आओ... पाओ ....बागी बनो
आए दिन बागी बनने की राजनीति सुर्खियां खूब सुनाई दे रहीं है। कल तक उसकी सत्ता थी ,पता नहीं रातों रात किसकी सत्ता बन जाए ।सत्ता बदलने का ये खेल खेलने वाले बागी ,तो कभी गद्दार, तो कभी महत्त्वाकांक्षी और ना जाने कितने नामों से पुकारे जाते है ।सत्ता परिवर्तन करना इनका कोई नया खेल नहीं नहीं है ।ना ये नाम नए है । राजा महाराजा के समय से ये गेम चेंजर रहे है । षड्यंत्र साजिश सत्ता परिवर्तन और अपनों को धोखा देना उनका शौक रहा है। ।
क्यों देते है धोखा
अपनो को धोखा देना कोई नहीं चाहता। इनसे संवाद करने पर या पार्टी के पाले में उछल कूद कर पहुँचते है उनसे पूछने पर इनके विभिन्न नामों का असली कारण पता चलता है ।
ढूंढते है अनुकूल पद,परिस्थिति और पैसा
जब एक कार्यकर्ता अपनी मेहनत संघर्ष के बलबूते पर राजनीति की चोटियों पर चढ़ता है,जिसकी अथक मेहनत पार्टी को भी एक नई उड़ान नया मुकाम हासिल करवाती है, तब यह सब को अच्छा लगता है ।हालांकि इसकी ऊंची उड़ान शीर्ष नेतृत्व के संरक्षण में होती है ।लेकिन इसकी यह तरक्की शेतु का काम करने वालो से देखी नहीं जाती,और यहीं शेतु उस मेहनती सफल कार्यकर्ता के प्रति षड्यंत्र और साजिश शुरू कर देता है।उस पर अनर्गल आरोप, बार बार उसकी अनदेखी उसके प्रति असम्मान की भावना उसे अपनों से अलग करने के लिए मजबूर कर देती है ।हालांकि इसके पीछे कुछ हद तक फैमिली सोशल साइंस सिद्धांत भी कार्य करता है।पाले बदलने वाले ऐसी परिस्थिति के मौके कि तलाश में रहते है कब उठापटक करें ।ये कभी कभी अकेले तो कभी कभी सेना के साथ पाला बदलते है ।ये पार्टी के साथ साथ हाईकमान पर अनेक आरोप लगाते है औऱ अपने को बेक़सूर मानते है ।
अनदेखी अनसुनी असंतुष्टि आत्मसम्मान का आरोप
मजबूरी में ही सही लेकिन हर मेहनती मानव की महत्त्वाकांक्षी होती है सर्वोच्च पद और सम्मान पाना ।राजनीति के दंगल में इसकी अहमीयत कई गुना बढ़ जाती है।मेहनत के अनुसार यह नहीं मिलता तो नए नेताओं में छटपटाहट होती है।इसका विरोधी दल बेसब्री से इंतजार कर रहे होते है ।विरोधियों द्वारा पद पैसा सम्मान का लोभ लुभावन भरोसा दिया जाता है ।भारत के पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई,यदि दल बदल नहीं करते तो क्या वो प्रधानमंत्री बन पाते।उस समय के राजनीति परिदृश्य में झांके तो शायद नहीं ।जबकि उस समय के उनके समतुल्य सभी नेताओं को उनकी इच्छा पता थी ।लेकिन पार्टी ,पार्टी नेताओं,साथियों ने उनका मजाक ही उड़ाया था और ये मजाक तीन दशक तक उड़ता रहा ।लेकिन जब उन्होंने जन संघ का दामन थामा और इसके सहारे प्रधानमंत्री बने तो उनकी इच्छा महत्त्वाकांक्षी हो गई । राजनीति के औदेदारों से कोई अलग सोच बना ले तो उस पर गद्दारी का टैग लगा दो या बागी का ।लेकिन कुछ हद तक ये उन सभी को सबक सिखाने का जरिया भी है हो राजनीति और सरकार को अपनी बापौती समझ बैठे है।हालांकि इसके लोकतंत्र में कुछ नुकसान है तो कुछ फायदे भी ।नुकसान तो सिर्फ इतना है कि एक स्थिर सरकार अस्थिर हो जाती है और जनता को फिर से चुनाव में परेशान होना पड़ता है ।लेकिन इससे सरकार को सबक मिलता है कि अकेले से नहीं सामूहिक समन्वय की भावना से ही जनता की सेवा होती है मनमानी से नहीं ।कितना खुश हुआ होगा भारत का लोकतंत्र जिस दिन उसे गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री मिला था ।एक नई बगावती सोच से ही सही लेकिन लोकतंत्र ने एक नई दिशा में कदम रखें जो गांधी परिवार की सोच से नहीं अपनी और जनता की सोच से चलना सीखा।
वर्तमान ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट के अपनी पार्टी से रूठने के कारण को ढूंढे तो मीडिया उन कारणों पर फोकस करती है जो नेताओं द्वारा बताए जाते है उन संभावित वजहों पर सुर्खी नहीं बनती जो षड्यंत्र और साजिश को बनाती है ।इन दोनों युवा नेताओं ने किंतनी मेहनत की जनता सब जानती है ।लेकिन क्या जनता वह जानती है जो इनकी ऊपरी पीढ़ी के नेता रच रहे थे ।ये ऊपरी पीढ़ी के अनुभवी नेता अच्छी तरह जानते समझते थे कि यदि ये युवा नेता राज्य में सत्ता कुर्सी तक पहुँच गए तब हमारे पुत्रों का क्या होगा ।ऊपरी पीढ़ी के इनके नेता इसलिए इन्हें तुजुर्बो सम्मान नहीं दे रहे थे ।फिर चाहे कितने भी गंभीर अनाप शनाप आरोप लगाए । ये बात सही है राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने कई युवा नेताओं को कम समय में उभारकर मुकाम तक पहुँचाया है लेकिन आकाओं की अनदेखी ने उन्हें जल्दी अस्त भी कर दिया।प्रदेश का एक मुख्यमंत्री उस युवा नेता से ये कह दे कि सड़क पर आना है तो आजाओ ,यह वाक्य तर्क में क्या सही है शोभनीय है ।वो भी उस व्यक्ति के ख़िलाफ़ जिसने चुनाव में सबसे ज्यादा रैलियां की हो ।क्या लोकतंत्र में दल विचारधारा का विरोध करना बेकार है । अपने आपको हमेशा सत्ता की स्थाई कुर्सी पर देखने वालों से उस समय सहन नहीं होता जब पार्टी नए चेहरे को मौका देती है ।नामदार टिकाऊ नेताओं से नामंजूर गुजरती है उस नए युवा चेहरे की मेहनती कमाई ।जो बाद में पार्टी की कार्यप्रणाली,विश्वसनीयता,उद्देश्य पर प्रश्न चिन्ह लगा देती है
लोभ लालच लालसा
हर राजनैतिक दल में दलबदलू होते है जो अनुकूल समय आने पर मौका पाते ही लोभ लालच और अधिक लालसा में अनैतिक मार्ग अख़्तियार कर लेते है।बागी बनने की परम्परा शासन काल में हो यह जरूरी नहीं होता ।बागियों का कोई काल नहीं होता ।कोई चुनाव से पहले बागी बन जाता है ,तो कोई चुनाव में टिकिट कटने पर ,तो कोई सरकार गिराने के वक्त।बागी तो एक बेमौसमी वर्षात है जो कभी भी कहीं भी हो सकती है ।
जनता किन किन नामों से पुकारती है
पाला बदलकर पूरा राजनीतिक समीकरण बदलने वाले ऐसे सूत्र को कहीं बागी ,तो कहीं गद्दार, तो कभी महत्त्वाकांक्षी ,तो कभी कभी धोखेबाज ,कभी पराया नाम से पुकारा जाता है ।
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