पर्चा के ख़र्चे तक पैसे नहीं तो मौत

स्वास्थ्य सभी के लिए अति आवश्यक है, अतः प्रत्येक नागरिक के लिए स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध होनी चाहिए। सभी नागरिकों को बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के उद्देश्य से सरकार ने विभिन्न स्वास्थ्य योजनाओं एवं कार्यक्रमों की शुरुआत की एवं उन्‍हें लागू किया है ।स्वास्थ्य परिवार कल्याण विभाग भारत सरकार की ऊपरी पंक्ति के लाइन किसी गरीब निर्धन नागरिक को सिर्फ सुनने में अच्छी लगती है ।इन्हीं लाइनों के शब्दों के सहारे वह  अस्पताल में जाता  है जहां उसे चिल्लाहट भरे शब्दों की फटकार मिलती है इलाज नहीं । बाजारवादी लोकतंत्र की सरकारों के स्वास्थ्य सुविधाओं की सम्पन्नता के गुणगान धरातल पर नजर आते है ।
भारत शासन द्वारा केन्‍द्रीय वित्‍त बजट 2018 में आयुष्‍मान भारत की घोषणा की गई थी, जिसके दो मुख्‍य उद्देश्य थे ।देश में एक लाख हेल्‍थ एण्‍ड वेलनेस सेंटर्स स्‍थापित करना एवं 10 करोड़ परिवारों को 5.00 लाख  रुपए प्रतिवर्ष के स्‍वास्‍थ्‍य बीमा कवच से जोड़ना । 
गुना मध्यप्रदेश में एक गरीब का इलाज नहीं होने का कारण जानकर आपकी रूह कांप उठेगी। दरअसल अशोकनगर  के शंकर कॉलोनी निवासी सुनील धाकड़ की मौत इलाज के अभाव में हुई उसकी पत्नी के पास अस्पताल में बनने वाली पर्ची को कटवाने के लिए पांच रुपए नहीं थे। बीमार पति और मासूम बच्चे को लेकर पत्नी अस्पताल के स्टाफ, डॉक्टर्स के सामने गिड़गिड़ाती रही, मदद की गुहार लगाती रही लेकिन किसी का भी दिल नहीं पसीजा।मासूम बच्चे के साथ मजबूरीवश आरती को बिना इलाज रात भर अस्पताल में रहना पड़ा। इस दौरान मैंने वहां मौजूद हर एक शख्स से मदद की गुहार लगाई कि कोई उसका पर्चा बनवा दे जिससे वो पति को डॉक्टर को दिखा सके लेकिन किसी का दिल नहीं पसीजा। रोते बिलखते रात कट गई आखिरकार समय पर इलाज ना मिलने के कारण सुनील ने  सुबह दम तोड़ दिया। आरती पति के इलाज के लिए  गुना आई थी लेकिन उसे क्या पता था कि मानवता शर्मसार होते  हुए उसके पति की जान ले लेगी।  आरती के पति को समय पर इलाज नहीं मिला और उसका सुहाग उजड़ गया।और बच्चे के सिर से पिता का साया चला गया।

 सत्ता की सफेद पोशाक द्वारा
 चुनाव में हर मरीज को बेहतर इलाज और लचर स्वास्थ्य  व्यवस्थाओं को  ठीक करने का वादा किया जाता है । बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं देने का दावा किया जाता है।लेकिन जमीनी स्तर पर ये खोखले ही नजर आते है ।
किसी भी देश में स्वास्थ्य का अधिकार जनता का सबसे पहला बुनियादी अधिकार होता है। लेकिन भारत में बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में रोज़ाना हजारों लोग अपनी जान गंवा देते हैं। भारत स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में बांग्लादेश, चीन, भूटान और श्रीलंका समेत अपने कई पड़ोसी देशों से पीछे है। इसका खुलासा शोध एजेंसी 'लैंसेट' ने अपने 'ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीज' नामक अध्ययन में किया है। इसके अनुसार, भारत स्वास्थ्य देखभाल, गुणवत्ता व पहुंच के मामले में 195 देशों की सूची में 145वें स्थान पर है।
विडंबना है कि आजादी के सात दशक बाद भी हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार नहीं हो सका है। सरकार ने सरकारी अस्पतलों को अपनी हालात पर छोड़ दिया है ।जहां सेवाएं खुद आईसीयू में भर्ती है ।बाजारवादी सरकार  की योजनाओं से निजी अस्पतालों का खुलाव तो कुकरमुत्ते की भांति सर्वत्र देखने को मिल रहा है।सत्ता  की मिलीभगत से चल रहे निजी अस्पतालों का लक्ष्य नागरिकों की सेवा करना नहीं है बल्कि सेवा की आड़ में मेवा अर्जित करना है। आज निजी अस्पताल लूट के अड्डे बन चुके।

दरअसल हमारे देश का संविधान समस्त नागरिकों को जीवन की रक्षा का अधिकार तो देता हैं लेकिन, जमीनी हकीकत बिल्कुल इसके विपरीत है। हमारे देश में स्वास्थ्य सेवा की ऐसी लचर स्थिति है कि सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों की कमी व उत्तम सुविधाओं का अभाव होने के कारण मरीजों को अंतिम विकल्प के तौर पर निजी अस्पतालों का सहारा लेना पड़ता है। देश में स्वास्थ्य जैसी जरूरी सेवाएं बिना किसी विजन व नीति के चल रही हैं। ऐसे हालातों में गरीब के लिए इलाज करवाना अपनी पहुंच से बाहर होता जा रहा है। 

ग़ौरतलब है कि हम स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी को सबसे कम खर्च करने वाले देशों में शुमार हैं। आंकड़ों के मुताबिक, भारत स्वास्थ्य सेवाओं में जीडीपी का महज़ 1.3 प्रतिशत खर्च करता है, जबकि ब्राजील स्वास्थ्य सेवा पर लगभग 8.3 प्रतिशत, रूस 7.1 प्रतिशत और दक्षिण अफ्रीका लगभग 8.8 प्रतिशत खर्च करता है। दक्षेस देशों में, अफगानिस्तान 8.2 प्रतिशत, मालदीव 13.7 प्रतिशत और नेपाल 5.8 प्रतिशत खर्च करता है। भारत स्वास्थ्य सेवाओं पर अपने पड़ोसी देशों चीन, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भी कम खर्च करता है।
सरकार की इसी उदासीनता का फायदा निजी मेडिकल संस्थान उठा रहे हैं। नेपाल और पाकिस्तान जैसे देशों से भी हम पीछे हैं, यह शर्म की बात है।

देश में 14 लाख डॉक्टरों की कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के आधार पर जहां प्रति एक हजार आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए, वहां भारत में सात हजार की आबादी पर एक डॉक्टर है।ग्रामीण इलाकों में चिकित्सकों के काम नहीं करने की अलग समस्या है। यह भी सच है कि भारत में बड़ी तेज गति से स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण हुआ है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में निजी अस्पतालों की संख्या 8 प्रतिशत थी, जो अब बढ़कर 93 प्रतिशत हो गई है। वहीं स्वास्थ्य सेवाओं में निजी निवेश 75 प्रतिशत तक बढ़ गया है। इन निजी अस्पतालों का लक्ष्य मुनाफा बटोरना रह गया है। दवा निर्माता कंपनी के साथ सांठ-गांठ करके महंगी से महंगी व कम लाभकारी दवा देकर मरीजों से पैसे ऐंठना अब इनके लिए रोज़ का काम बन चुका है। यह समझ से परे है कि भारत जैसे देश में आज भी लोग आर्थिक पिछड़ेपन के शिकार हैं। वहां चिकित्सा एवं स्वास्थ्य जैसी सेवाओं को निजी हाथों में सौंपना कितना उचित है? एक अध्ययन के अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं के महंगे खर्च के कारण भारत में प्रतिवर्ष चार करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। रिसर्च एजेंसी 'अर्न्स्ट एंड यंग' द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 80 फीसदी शहरी और करीब 90 फीसदी ग्रामीण नागरिक अपने सालाना घरेलू खर्च का आधे से अधिक हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च कर देते हैं। 

मोदी सरकार ने पिछले साल इलाज की सुविधाओं को बेहतर बनाने के लिए आयुष्मान भारत योजना की शुरुआत तो की लेकिन मूलभूत सुविधाओं की ओर ध्यान ही नहीं दिया। कई रिपोर्ट में खुलासा हो चुका है कि देशभर में प्रशिक्षित डॉक्टरों की भारी कमी है। ऐसे में जब डॉक्टर ही नहीं होंगे तो बीमा का लाभ कैसे मिलेगा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार भारत में 14 लाख डॉक्टरों की कमी है।देश में विशेषज्ञ डॉक्टरों की 50 फीसदी से भी ज्यादा कमी है। ग्रामीण इलाकों में तो यह आंकड़ा 82 फीसदी तक पहुंच जाता है। 

 भारत डॉक्टर्स की कमी से जूझ रहा है

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के सेंट्रल ब्यूरो आफ हेल्थ इंटेलिजेंस की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत डॉक्टरों की भारी कमी से जूझ रहा है। फिलहाल प्रति 11,082 आबादी पर महज एक डॉक्टर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों के मुताबिक एक हजार आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए। देश में यह अनुपात तय मानकों के मुकाबले 11 गुना कम है।उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी तस्वीर भयावह  है।अस्पतालों में मरीजों को  घंटे घंटेभर की  लाइनो में लगना पड़ता है ।पहले पर्चा कटवाने की लाइन ,फिर डॉक्टर को दिखाने की लाइन । घण्टे भर की लंबी लाइन के बाद डॉक्टर क्या हुआ  पूछकर दो मिनट में ट्रीटमेंट लिखकर जाने को कह देता है ।कभी कभी तो डॉ  बिना मरीज की दिक्कत जाने ही दवा लिख देता है ।

यूनाइटेड नेशन्स इंटर एजेंसी ग्रुप फॉर चाइल्ड मॉर्टेलिटी एस्टीमेशन (बाल मृत्यु दर अनुमान के लिए संयुक्त राष्ट्र अंतर एजेंसी समूह) की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर 2 मिनट में 3 नवजातों की जान जाती है। रिपोर्ट में दावा किया है कि इन मौतों के पीछे भारत में पानी, स्वच्छता, उचित पोषण और बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं की कमी मुख्य कारण हैं।
 सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद अब भी हमारे देश में करीब 20 हजार नवजात बच्चे जन्म के पहले सप्ताह के दौरान ही दम तोड़ देते हैं।
स्वास्थ्य सेवाओं के बजट में उदासीनता को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने आम चुनाव 2019 के लिए अपने घोषणापत्र (संकल्प पत्र) में  वादा किया था कि इस बार वो स्वास्थ्य के क्षेत्र में  दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना 'आयुष्मान भारत योजना' को और बढ़ाएंगे । इसके लिए 'हेल्थ फॉर ऑल' नाम का नारा भी दिया गया था।
सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था भारत की सबसे बड़ी समस्या है फिर भी इसके बजट में कटौती की जाती है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में खर्च के मामले भारत अपने पड़ोसियों से भी पीछे है। 
इस मामले में यह मालदीव (9.4 फीसदी, भूटान (2.5 फीसदी), श्रीलंका (1.6 फीसदी) से भी पीछे है।जबकि दूसरे सेक्टर्स की बातकी जाए तो (2018-19) में देश के रक्षा बजट में आठ फीसदी की भारी-भरकम बढ़ोतरी करके इसे लगभग 3,00000 करोड़ रुपए कर दिया गया जो स्वास्थ्य क्षेत्र की तुलना में कई गुना ज्यादा है।

भारत की मौजूदा स्वास्थ्य व्यवस्था को सही करने की जरुरत है। ख़ास तौर से कमजोर प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली, कुशल मानव संसाधन की कमी से निपटना, निजी क्षेत्र के बेहतर विनियमन, स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च में वृद्धि, स्वास्थ्य सूचना प्रणाली में सुधार और जवाबदेही के मुद्दे से निपटने की प्रमुख चुनौतियां हैं। इन हालातों में स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करने के लिए स्वास्थ्य सेवा वितरण प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन करने होंगे ।
 मध्यप्रदेश में 15 साल से सत्ता पर काबिज शिवराज सरकार राज्य को शव राज्य बना रही ।कभी कभी राजधानी में शवों को चूहें कतर रहे होते है ,तो सतना में नवजात शिशु को कुत्ता नोंच रहा होता है । वहीं कोरोना कहर में खाकी वर्दी डॉक्टर का कार्य रही है । कोरोना महामारी में बिना  डॉक्टर के आशा और पुलिस स्क्रीनिंग कर रही है । अस्पतालों की कमी के चलते  क्वारेंटाइन के नाम हज़ारो स्कूलों को कोरोना का घर बना दिया।इससे साफ है कि हमारी सरकार पर्याप्त अस्पताल भी नहीं खोल पाई ।कई सालों से सत्ता पर काबिज रहने वाले नेता जिनकी देखरेख में स्वास्थ्य विभाग चलता है, अपना इलाज करवाने के लिए दूसरे देशों में जाते है । क्या ऐसे नेताओं को जनता की कोई फिक्र होती होंगी? ।अभी हाल ही में  बड़े बड़े मध्य प्रदेश के राज्यपाल लालजी टंडन भोपाल के राजभवन में बीमार हुए लेकिन इलाज के लिए उन्हें लखनऊ ले जाया गया । इससे सीधे सीधे सवाल उठता है क्या मध्यप्रदेश की स्वास्थ्य सेवा इतनी लचर है ।

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