जाति का हाथी अब सबका साथी
वर्तमान भारत पर मायावती प्रभाव का स्वरूप और दलित मानसिकता
ब्राह्मण बनियों का बहुजन समाज पार्टी में आने से मायावती की रहस्यात्मकता और बढ़ी है.जबकि उनके विरोधी अनुसूचित जाति के नेताओं ने इस कलाबाजी को दलितों के साथ विश्वासघात बताने की कोशिश की है. पर इन समुदायों ने इसे विचारधारा में मिलावट नहीं बल्कि बढ़ती हुई दलित शक्ति की प्रतिष्ठा माना है. उत्तर प्रदेश में ऐसे जातिगत समझौते से बसपा को सफलता मिली . इसके साथ ही चारों तरफ यह उम्मीद बंधी है कि यह स्थिति देश के दूसरे भागों में भी अपनाई जा सकती है .समर्थक इस बारे में एकमत है कि मायावती एक उम्मीद है जो भविष्य के लिए जगाती है.पूर्व मुख्यमंत्री अब ऐसी राजनीति शक्ति का प्रतीक है जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती जो लोग शताब्दियों से दूसरों के टुकड़ों पर पलते रहे हैं.उनके लिए ये विचार मात्र है की एक दलित नेत्री एक मेजबान की जगह बैठी होगी पूरे समुदाय में शक्ति का संचार कर देता है. ऐसे में बीएसपी पर उस नौजवान नेता का आरोप कितना सही है कि दलित का वोट ब्राहमणों का नेतृत्व. जबकि सत्ता राजनीति में सब जायज है । यह सच्चाई है कि मायावती अब अन्य नेताओं पर निर्भर नहीं है.जातिगत समझौतों से बसपा को मिली सफलता ने चारों तरफ यह उम्मीद बांधी ।इसलिए बसपा ने बहुजन की जगह सर्वजन की बात की.दलितों को आज भी मायावती पर अटूट विश्वास है
सौदे समझौते व सत्ता
उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती गुपचुप सौदों के लिए जानी जाती है.जिनके सहारे ही हाथी को सत्ता तक की कठिन चढ़ाई चढ़ने में सहायता मिली. जब इन सौदों की उपयोगिता खत्म हो जाती है या स्वार्थ पूरा हो जाता तब मायावती बड़ी मुस्तैदी से इन्हें तोड़ देती है.काशीराम ने मायावती मिसाइल को इसी खास निशानों को साधने के लिए बनाया ,जो हमेशा एक ही दिशा में निशाना साधती है ,एक लक्ष्य रखती है.मायावती ने हमेशा अपनी ऊर्जा एक ही दिशा में लगाई. और अपने आप को कभी मूल लक्ष्य से हटने नहीं दिया.मायावती सीधी दिशा में सोचते हुए एक मसले से हिम्मत तोड़ने वाली चुनौती है. यह बात इससे पता चलती है. यूपी जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव से बीएसपी दूर रही.ऐसा कठोर निर्णय कोई हिम्मत समझदार दूरगामी नेता ही ले सकता है.जबकि कुछ नए नेता दलित वोट से खिलवाड का आरोप मायावती पर मढ़ रहे है.जबकि पूर्व सीएम का तर्क समाज के हर समुदाय को भाया.क्योंकि यदि बीएसपी सत्ता में वापस आती है तो इनमें से ज्यादातर अध्यक्ष स्वत पार्टी में शामिल हो जायेंगे. इन पर पैसा एनर्जी समय वेस्ट करने से बीएसपी बची.
'सड़क से नहीं' संसद से बदलती है समाज की सूरत
सत्ता की दौड़ में राजनीति के मैदान में खिलाडी नेता परंपरा से जो खेल खेलते चले आ रहे,मायावती ने उसे नया रूप दिया है.तभी तो कई तपे हुए राजनेताओं की तुलना में मायावती ज्यादा प्रासंगिक है. ताज कॉरिडोर मामले में हारी हुई मुख्यमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की ऐसी व्यू रचना की गई है जो उनका राजनीतिक जीवन का अंत कर देती.लेकिन मायावती की सूझ बूझ ईमानदार रवैया राजनीति दांव पेंच के दूरगामी निर्णयों ने डंटकर सामना किया.और वर्तमान दौर में वह देश की सबसे महत्वपूर्ण संभावना पूर्ण राजनेता बनकर उभरी .पिछड़े समुदायों में देश की सफल राजनेता के रूप में है .मायावती ने ऐसे समुदाय को अभूतपूर्व नैतिक चेहरा और हैसियत दी है,जो कई शताब्दियों से सामाजिक पूर्वाग्रह के नीचे पिस रहा .मायावती की निराली राजनीति निर्भिक प्रदर्शन साधारण के लिए ही नहीं बड़े-बड़े राजनैतिक पंडितों के लिए एक पहेली है.मायावती का आत्मकेंद्रित लेकिन एकदम पारदर्शी रवैया उन पार्टियों की तुलना में कहीं अधिक ईमानदार है जिनमें राजनीतिक एजेंडा इतना ही स्वार्थनिष्ठ होता है, पर लागू पूरे आडंबर के साथ किया जाता है.ऊपर से देखने पर मायावती के चार बार राज्य के मुख्यमंत्री होने के बावजूद उत्तर प्रदेश में भी अब तक अछूतों और समाज के हाशिये पर स्थित तमाम दूसरे दरिद्र लोगों की हालत दयनीय है.यद्यपि पहली तीन बार तो उनका शासन काल अचानक बीच में कट गया था, पर जब उन्हें पूरी अवधि का शासन का अधिकार मिला तब भी कहीं ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता जिससे यह लगे कि एक दलित नेता के तौर पर मायावती ने अपने समुदाय के सामाजिक-आर्थिक चेहरे को तेजी से बदल दिया.तब भी उनकी लोकप्रियता,प्रतिकात्मक और भावनात्मक स्तर पर बढ़ीं है. दरअसल देश में सबसे पिछड़े समुदाय की राजनीतिक सशक्तिकरण की अवधारणा और ऊपर उठने के सपनों ने ही दलितों की आशा आकांक्षा कल्पना उम्मीद संभावना को प्रज्वलित किया है. मायावती ने सत्ता में रहकर चमकीले पत्थरों की जो इमारतें खड़ी की है । वे भारत में दलित शक्ति की सबसे प्रत्यक्ष प्रतीक है,जो उनमें एक अनोखी शक्ति का संचार करती है, दलित समुदायों को ये तीर्थ स्थल हमेशा याद दिलाते है कि मायावती सत्ता के शासन पर लौट आई है वह भी पूरे बहुमत के साथ .बहन जी के द्वारा बने पार्क अपने महापुरुषों के प्रति श्रद्धांजलि से ज्यादा इस बात का सार्वजनिक उत्सव है कि दलित समुदाय अपने मसीहाओं की याद अब कितनी अपार धन राशि खर्च कर सकता है.ऐसी जनता के लिए ये गर्व है जिसे कई सदियों से कोई धार्मिक प्रतीक सुलभ नहीं था.ऐसा टोटमवाद बहुत बल देने वाला होता है और शायद आर्थिक समृद्धि से भी ज्यादा प्रासंगिक.
दलित संवेदनशीलता स्वाभिमान सम्मान का प्रतीक मायावती
उत्तर प्रदेश में मध्यम वर्ग के बुद्धिजीवी एक बात जरूर स्वीकार करते हैं कि बीएसपी के शासन में कानून व्यवस्था बेहतर दिखाई पड़ती.सामाजिक न्याय और सांप्रदायिक सद्भाव यहाँ के वातावरण में घुल गई.लेकिन कुछ समय से नये युवा दलित नेता जिस प्रकार सड़क पर उतरकर बहुजनों की आवाज बन रहे है उनके सुख दुःख में शामिल हो रहे है ,कहीं ना कहीं बीएसपी वोट बैंक में सैध लगा सकते है.भले ही पूर्व सीएम मायावती सामाजिक स्थिति सत्ता से बदलना चाहती है। इसको बहन जी के इस उदाहरण से समझ सकते है.चौथी बार वर्ष 2007 में बहन जी के सत्ता में लौटने के 6 महीने बाद बॉलीवुड की एक लोकप्रिय फिल्म रिलीज हुई ' आजा नच ले 'जिसके एक आपत्तिजनक गाने के बोल पर पर दलित समुदाय ने एतराज जताया.लाइन थी' बाजार में मची है मारामार बोले मोची भी खुद को सुनार' मायावती ने तुरंत उत्तर प्रदेश में फिल्म पर प्रतिबंध लगाकर पूरे देश में प्रतिबंध की मांग करते हुए प्रधानमंत्री को एक पत्र भेज दिया.24 घंटे के भीतर फिल्म के प्रोड्यूसर यश चोपड़ा ने साफ शब्दों में माफीनामा भेजा जिसमें गीत से विवादित शब्द हटाकर यह वादा भी किया गया कि भविष्य में कभी जातिवाचक गानों का उपयोग नहीं करेंगे .यह सत्य तथ्य है कि मायावती उस बॉलीवुड से टकरा सकती है जिसे भारतीय संस्कृति का साकार रूप समझा जाता है और दलित संवेदनशीलता और स्वाभिमान के प्रश्न पर निर्णायक जीत हासिल कर सकती है .लेकिन कहा जाता उछालों को अक्सर संतोष मार देता है. हाथी को साथ में यह भी दिखाना होगा की वे सड़कों पर उतरकर संघर्ष कर सकते है और आम लोगों से फिर घुल मिल सकते है.
लेखक
आनंद जोनवार
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मुरैना
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